जैसलमेर जिले के रामदेवरा की तरह ही शेखावाटी के नवलगढ़ में भी बाबा रामदेव का विशाल मेला भरता है। जहां ना केवल राजस्थान बल्कि दूसरे राज्यों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। आज मेले का आयोजन हो रहा है। मेले की खासियत ये है कि यहां आज भी पूर्व राजपरिवार के रावले से मंदिर में घोड़ा आता है और धोक लगाता है। घोड़े के साथ एक सफेद ध्वज भी होता है, जिसे मंदिर के शिखर पर ध्वज लगाया जाता है। इसके बाद मंदिर में जोत प्रकट होती है और मेला शुरू हो जाता है। वर्ष 1776 में नवलगढ़ के राजा नवलसिंह ने मंदिर का निर्माण कराया था। तभी से ये परंपरा चली आ रही है। मंदिर में बाबा रामदेव के चमत्कारों को चित्रों से बताया गया है। मेले के अवसर पर आज शाम पांच बजे बाबा की जोत प्रकट होगी।
2 किलोमीटर नगर भ्रमण के बाद मंदिर पहुंचता है घोड़ा
परंपरा के अनुसार पूर्व राजपरिवार के महल से घोड़ा निकलता है और करीब 2 किलोमीटर नगर में घूमते हुए रामदेवजी मंदिर पहुंचता है। घोड़े के साथ 251 निशान और एक सफेद ध्वज चलजा है। यहां पहुंचने पर घोड़ा बाबा रामदेवजी के धोक और फेरी लगाता है। इसी दौरान जोत प्रकट होती है और फिर सफेद ध्वज मंदिर के गुंबद पर लगाया जाता है। इसी के साथ मेले की शुरुआत होती है। मेले में करीब 5 से 7 लाख श्रद्धालु पहुंचते हैं। यह जोत साल में दो बार प्रकट होती है। इस दौरान कामड़ समाज के लोगों की मौजूदगी जरुरी होती है। कामड समाज के लोग भी मंदिर स्थापना से लेकर आज तक जोत लेने की परम्परा को निभा रहे हैं। परिवार के लोग बड़े गर्व के साथ कहते है उनको परम्परा का तो पता नहीं है, लेकिन यह बाबा रामदेव का आशीर्वाद है कि उनका परिवार इस परम्परा को पीढ़ियों से निभा रहा है।
मंदिर का इतिहास और उससे जुड़ी कथा
प्रचलित कथा के अनुसार नवलगढ़ के तत्कालीन राजा नवलसिंह की रानी की लोकदेवता बाबा रामदेव में गहरी आस्था थी। राजा नवलसिंह दिल्ली के बादशाह को 22 हजार रुपए का कर देने के लिए दिल्ली जा रहे थे। हरियाणा के दादरी में उन्हे पता चला कि चिड़ावा निवासी महिला के कोई सगा भाई नहीं है, वह भात भरने के लिए अपने चचेरे भाईयों का इंतजार कर रही थी, मगर वे नहीं आए।
लोग महिला का मजाक उड़ाने लगे, यह बात राजा नवलसिंह को पता चली तो उन्होंने भात में 22 हजार रुपए दे दिए। इसके बाद वे नवलगढ़ वापस लौट आए। कर नहीं चुकाने की बात बादशाह को पता चली तो उन्होंने अपने सेनापति को नवलगढ़ भेजा, सेनापति ने धोखा देकर राजा नवलसिंह को गिरफ्तार कर लिया और दिल्ली जेल में डाल दिया।
जेल में रहने के दौरान नवलसिंह लोक देवता बाबा रामदेवजी को याद कर सो गए। उनकी पत्नी ने भी रामदेवजी का याद किया। कुछ देर बाद मौसम खराब हो गया, तेज हवाएं चलने के कारण सर्दी बढ़ गई। पहरेदार अपना स्थान छोड़कर चले गए। कारावास का गेट टूटकर नीचे गिर गया। इसी दौरान नवलसिंह की नींद टूट गई। इसके बाद वे जेल से बाहर आ गए। बाहर आकर देखा तो पीपल के पेड़ के नीचे एक घोड़ा दिखाई दिया। वे इस घोड़े पर सवार हो गए। घोड़ा तेज रफ्तार से दौड़ता हुआ नवलगढ़ आ गया। जहां पर घोड़ा रूका वहां पर रामदेवजी का मंदिर बना दिया गया। नवलसिंह ने इस घोड़े को गढ़ में ले जाने का प्रयास किया, लेकिन घोड़ा नहीं हिला। इसके बाद वे घोड़े को वहीं पर छोड़कर गढ़ में चले गए। वहां से उन्होंने अपने पहरेदारों को घोड़ा लेने के लिए भेजा, लेकिन वहां पर घोड़ा नहीं मिला। वहां पर सिर्फ घोड़े के पैरों के निशान ही दिखाई दिए। इसके बाद उनकी बाबा रामदेवजी में गहरी आस्था हो गई। राजा ने सन 1776 में बाबा रामदेवजी के मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर निर्माण के बाद मेले भरने की परंपरा शुरू हो गई।