हाथों में मेडल और आंखों में आंसू लेकर वीरांगना ने सुनाई कहानी, बताया आज भी संभाल कर रखे है शहीद के खत

शहीद वीरांगना ने कि शहीद सुमेर सिंह ने पंजाब के ऑपरेशन ब्लू स्टार में भी अपना दमखम दिखाया था और शहीद होने से पहले शहीद सुमेर सिंह छुट्टियों में गांव आए हुए थे. अचानक से कारगिल युद्ध की सूचना उन्हें मिली और घरवालों को बिना युद्ध के बारे में बताए वो चले गए.

चूरू जिले के 2 राज राइफल में कार्यरत रहे शहीद सूबेदार सुमेर सिंह राठौड़ ने देश की रक्षा करते हुए 13 जून 1999 के पाकिस्तानी सेना को नाकों चने चबवा दिये और तोलोलीन पहाड़ी पर तिरंगा फैलाया था.

15 अगस्त 1955 को दुधवाखारा गांव में सुमेर सिंह राठौड़ ने जन्म लिया. शहीद सुमेर सिंह के पिता का नाम डूंगर सिंह राठौड़ और माता का नाम कमलेश था. शहीद सुमेर सिंह जन्म से ही काफी बहादुर थे और देश भक्ति का जस्बा उनमें कूट कूट कर भरा था.

शहीद सुमेर सिंह को देश पर कुर्बान होने वाले वीरों की कहानियां पढ़ने का काफी शौक था और भारतीय सेना और फौज की वर्दी उन्हें बहुत अच्छी लगती थी. इसी कारण सुमेर सिंह को सैनिक बनने की ललक हुई और 26 अप्रैल 1975 को राजपूताना राइफल में भर्ती हो गए. 

दिल्ली में प्रशिक्षण पूर्ण कर द्वितीय राजपूत राइफल में देश की सेवा के लिए चले गए. सुमेर सिंह सेना में काफी कर्तव्यनिष्ठ सिपाही थे. इनमें कार्य के प्रति लगन की भावना काफी अधिक थी साथ ही देशभक्ति की जज्बा भावना कूट-कूट कर भरी थी. जो सोचते थे वो पूरा करके ही दम लेते थे.

सुमेर सिंह फौजी थे इसलिए फौजी की लड़की से शादी करना चाहते थे, ताकि होने वाली पत्नी फौजी के माहौल को जान सके. इसलिए सन 1976 में नंगला सतनाली गांव (हरियाणा) के निवासी सेवानिवृत्त हवलदार मेजर मातु सिंह की बेटी कमला कंवर के साथ विवाह किया. इनके ससुर मातुसिंह फौजी होने के नाते अनुशासन प्रिय थे. शहीद सुमेर सिंह अपने ससुर से पुराने युद्ध की कहानियां सुनते थे.

शहीद सुमेर सिंह राठौड़  का दुधवाखारा में स्मृति स्थल है, जहां 13 जून को उनकी शहादत के दिन मेला भरता है. वहीं उनके सम्मान में गांव के राजकीय बालिका उच्च प्राथमिक विद्यालय का नाम भी शहीद सुमेर सिंह के नाम पर रखा गया है. चूरू नगरपरिषद की तरफ से भी सैनिक बस्ती चूरू में एक पार्क का नामकरण शहीद सुमेर सिंह राठौड़ के नाम पर किया गया है. दूधवा खारा गांव में उनके घर के पास ही शहीद सुमेर सिंह राठौड़ का एक मंदिर बनाया गया है.

देश के लिये जान न्यौछावर करने शहीद परिवार को फक्र है और अपने आपको गौरवान्वित महसूस करते हैं. शहीद वीरांगना का कहना है कि जब वो शहीद हुए , तो हम पर दुख का पहाड़ टूट गया था. मगर धीरे-धीरे हमारा परिवार संभल गया और आज हमें फक्र है शहीद सूबेदार सुमेर सिंह के नाम के पीछे हमारा नाम जुड़ा है. हमें बड़ा गर्व है.

वीरांगना ने कहा कि मेरे पति ने जहां शहादत दी, वो जगह मैं भी जाकर देखना चाहती हूं. मेरे मन में ये विचार आता है कि मेरे पति ने देश रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कि देश के लिए मैं क्या कर सकती हूं. शहीद वीरांगना कमला कँवर ने बताया देश की रक्षा के लिए युवाओं में जज्बा होना चाहिए सेना ही हमारा घर है हमारा गौरव है.

शहीद सुमेर सिंह ने 12वीं तक की शिक्षा ग्रहण की, खेलों में भी अव्वल रहे और सामाजिक सरोकारों से भी जुड़े रहते थे. खेलकूद के प्रति उनकी विशेष रुचि रहती थी. शहीद सुमेर सिंह की पत्नी कमला कंवर ने बताया जब भी गांव छुट्टियों में आते थे. गांव के लोगों से बहुत ही स्नेह रखते थे, सभी को आगे बढ़ने की प्रेरणा देते तथा देश भक्ति के लिए युवाओं में जोश भरते थे.

शहीद को मिले सेना मैडल को हाथ में लेकर रूआसी हुई वीरांगना कमला कंवर ने बताया उनके दो लड़के नरेंद्र सिंह और हिम्मत सिंह है और एक लड़की अनीता कंवर है . उनका एक बेटे नरेंद्र सिंह सरकारी सेवा में हैं और दूसरे बेटे हिम्मत सिंह अजमेर जिले के किशनगढ़ में शहीद के नाम से संचालित पेट्रोल पंप को संभालते हैं.

शहीद वीरांगना ने कि शहीद सुमेर सिंह ने पंजाब के ऑपरेशन ब्लू स्टार में भी अपना दमखम दिखाया था और शहीद होने से पहले शहीद सुमेर सिंह छुट्टियों में गांव आए हुए थे. अचानक से कारगिल युद्ध की सूचना उन्हें मिली और घरवालों को बिना युद्ध के बारे में बताए वो चले गए. आज भी वीरांगना ने पति के खत संभाल कर रखें हैं. जिन्हे पढ़ कर वो पुरानी यादें ताजा कर लेती हैं.

शहीद सुमेर सिंह, 2 राज बटालियन में सूबेदार की पोस्ट पर युद्ध में मोर्चा संभालते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. शहीद सुमेर सिंह ऑपरेशन कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठियों के दांत खट्टे किए. शहीद सुमेर सिंह के चाचा रिटायर्ड सूबेदार मेजर ने बताया कि कारगिल युद्ध हिन्दुतान का एक निर्णायक और रोंगटे खड़े कर देने वाला युद्ध रहा है. देश भक्ति के जवानों जज्बे ने ही विजय हासिल करवाई थी. उस युद्ध में 5 जेसीओ, 4 अधिकारी और 47 जवानों ने शहादत दी थी. शहीद की याद में बने मंदिर में गांव के लोग धोक लगाने आते है. जो भी युवा फ़ौज में जाता है या तैयारी करता है वो भी मंदिर में माथा टेकने आते है.

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